नौशादजी का बॅंन्ड किसने बजाया? (हास्य – सत्यकथा) – घनश्याम ठक्कर [ओएसीस]
Computer Art: Oasis Thacker
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फिल्म ः बैजू बावरा
‘बैजू बावरा’ अभिनय, कहानी, निर्देशन और संगीत के बिंदु से बॉलीवुड की सबसे उत्कॄष्ठ फिल्मों में से एक है. तानसेन और शहेनशाह अकबर के समकालिन बैजू भारतीय शास्त्रीय संगीत में योगदान देने वाली महत्वपूर्ण प्रतिभा है.
लेकिन अच्छी कहानी के लिये यह पर्याप्त नहीं है. अकवर कला-प्रेम और संगीत-प्रेम के लिये और अच्छे कलाकारों का सन्मान करने के लिये मशहूर है. जैसे पुराने रोमन साम्राज्य में सम्राट अपने और प्रजा के मनोरंजन के लिये Fight till death शर्तवाले duals रखते थे, यहां श्हेनशाह असाधारण द्वंद्व का आयोजन करते है. दो संगीतकारों के बीच संगीतस्पर्धा आज भी होती है. लेकिन यहां शहेनशाह का तरंग नये प्रकार के संगीत द्वंद्व की घोषणा करते हैं. ‘राज्यमें से कोई भी अकबर के प्रधान संगीतकार तानसेन को चुनौती दे सकता है, लेकिन अगर वह हार जाये तो उसे सजाये मौत मील सकती है. ऐसे अच्छे शाशक भी कभी कभी पागलपन दिखा सकते थे. खैर, ऐसे ही पागलपन के साथ छोटे गांव का संगीतकार बैजू यह चुनौती उठाता है, और जिस प्रेमिका के पीछे वह पागल (बावरा) था उसे छोड कर जाता है. हारता है. लेकिन अकबर उसे जीवनदान देते हैं फिल्ममें यह गीत बैजू की प्रियतमा विदाय के समय गाती है.
इस लेख का उद्देश्य फिल्म की कहानी कहने का नहीं है, लेकिन गीत/संगीत के लिये भाव की पूर्वभूमिका तैयार करनेका है.
बात ‘मोहोबत’ की नहीं, ‘बचपन की मोहोबत’ की है. फर्क है. बचपनमें निर्दोश प्रेम की जो सच्चाई होती है वह उम्र बढने के साथ स्वार्थ, अभिमान आदि विकार से कलुषित होती है.
लेकिन केबल टीवी और इन्टरनेटके आगमन के बाद बचपन और वयस्कता के बीच की लक्षमणरेखा पतली हो गई है. जो कचरा वयस्कों के लिये तैयार होता है वह बच्चोंको भी उअपल्ब्ध है.
नौशाद साहब और कुछ नहीं करते, और सिर्फ ‘मोगले आझम’ और ‘बैजू बावरा’ में संगीत देते, तो भी उन्हें मैं दुनिया के श्रेष्ठ संगीतकारों के समुहमें शामिल करता.