शास्तीय और जाझ संगीत का सुभग समन्वय
Play>>
अगर आपने रिचार्ड एटनबरो की अंग्रेजी फिल्म ‘गांधी’ देखी होगी तो शायद उसके टाईटल का, गांधीजी का सबसे प्रिय भजन, ‘वैश्नवजन’ याद होगा. गीत की कुछ पंक्तियों टाइटल में गायी गई है, और फिल्मके संगीतकार और सितारमॅस्ट्रो पंडित रविशंकरने सितार पर गीत की छोटी सी धून मधुर सूर में बजायी थी. गांधीजी का यह सबसे प्रिय भजन था, और हमेशां प्रार्थना में गाया जाता था. यह गीत नरसिंह महेता ने पंद्रहवीं शताब्दी में लिखा था. नरसिंह गुजराती भाषा के आद्य और मीरा, कबीर जैसे महान भक्तकवि थे, जिन्होंने कभीं गहरी फिलोसोफी युक्त तो कभी अनपठ भी समज सके ऐसी लोकबोली में उच्च जीवन जिनेका सबक सिखाया. वे काव्यसर्जन में तो अपने काल से ४०० साल आगे तो थे, लेकिन सामाजिक समानता के विषय में इससे भी ज्यादा प्रगतीशील थे. नरसिंह ब्राह्मण ज्ञाति के भी सबसे ऊंचे नागर कुल में पैदा हुए थे. उस काल में नागर वैष्य के घर का भी पानी नहीं पीते थे, तब नरसिंह अछूतों की बस्ती में जा कर भजन किया करते थे. इसके लिये उनको जाति बाहर निकाले गये, और कुछ और भी मुसीबतों का सामना पडा. ऐसे विरल विभु के लिये मेरा सर झुकता है. (और मेरा सर इतनी आसानी से नहीं झुकता है)
शक्य है कि गांधीजी ने पांचसो साल बाद अहमदाबाद के कोचरब आश्रम में अछूतों को रखने का निर्णय नरसिंह की प्रेरणा से लिया हो, और इसी लिये ‘वैष्नवजन’ उनका सबसे प्रिय भजन हो. (नरसिंह के विचार और आचार में बिलकुल तफावत नहीं था.) पांचसो साल के बाद भी गांधीजी को बहुत विरोध का सामना करना पडा. कोचरब आश्रम के लिये डोनेशन आने बंध हो गये, और आश्रम बंध करने की स्थिति आ गई. एक दीन अहमदाबाद के वीर उद्योगपति अंबालाल साराभाई (वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के पिताजी) की कार आश्रम के पास खडी रही, और उन्होंने गांधीजी को आश्रम के लिये बडा डोनेशन दिया. मेरा ये सद्भाग्य है कि मैं ऐसे पवित्र आश्रम की पड़ोस में बडा हुआ था.