“नील-मशी की यमुना के तट पर (गीत) – घनश्याम ठक्कर” पर 2 विचार
कोरे कागज़ के परिधान पहन के कोई, बिलकुल नि:शुल्क बेचे नीली कलम!
नील-मशी की यमुना के तट पर पनिहारी के ‘प्रेमपत्र के अक्षर’ जैसे स्मित,
कलम बने शहनाई तब तो हर एक खत दोहराए होली गीत….
स्याही-उर्वर इन आंखो के दवात, जैसे बंद तिजोरी में विधवा के जेवर!
वस्त्र उपर एक नाम लिखो तो आगे पढ़ें
तिरछी कलम की जुबानी
‘घर समाज की विसंगतिया जब दिल पर चोट करती है।
तो लेखनी बरबस उठ जाती है
कोरे कागज़ के परिधान पहन के कोई, बिलकुल नि:शुल्क बेचे नीली कलम!
नील-मशी की यमुना के तट पर पनिहारी के ‘प्रेमपत्र के अक्षर’ जैसे स्मित,
कलम बने शहनाई तब तो हर एक खत दोहराए होली गीत….
स्याही-उर्वर इन आंखो के दवात, जैसे बंद तिजोरी में विधवा के जेवर!
वस्त्र उपर एक नाम लिखो तो आगे पढ़ें
तिरछी कलम की जुबानी
‘घर समाज की विसंगतिया जब दिल पर चोट करती है।
तो लेखनी बरबस उठ जाती है
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